पुस्तक समीक्षा : “रणथंबौर की ज्वाला” — वीरता, भक्ति और इतिहास का ज्वलंत समागम
समरजीत सिंह द्वारा रचित “रणथंबौर की ज्वाला” एक ऐसा ऐतिहासिक उपन्यास है जो न केवल राजपूत शौर्य की गाथाओं को फिर से जीवंत करता है, बल्कि सनातन धर्म की रक्षा और शिव-भक्ति के चिरंतन संदेश को आधुनिक पाठकों तक भावपूर्ण ढंग से पहुँचाता है। यह उपन्यास 11वीं शताब्दी के उस निर्णायक कालखंड पर आधारित है जब भारत पर विदेशी आक्रमणों की छाया गहरी हो चुकी थी और रणभूमि में केवल युद्ध ही नहीं, धर्म और संस्कृति की रक्षा का भी प्रश्न उपस्थित था। इसी पृष्ठभूमि में लेखक ने गौर राजपूत राजा चंद्रसेन गौर, उनके पुत्र इंद्रसेन और परम साहसी योद्धा रेवत सिंह राठौड़ के अदम्य पराक्रम को केंद्र में रखते हुए एक हृदयस्पर्शी और प्रेरक कथा गढ़ी है।
कहानी की शुरुआत गौर राजपूतों की उत्पत्ति और वंशावली से होती है, जिनका इतिहास बंगाल के शक्तिशाली पाल वंश से जुड़ता है। लेखक ने राजनीतिक परिस्थितियों, सत्ता संघर्षों और बंगाल से राजस्थान तक के प्रवास को बड़े शोधपूर्ण तरीके से प्रस्तुत किया है। यह भाग न केवल ऐतिहासिक जानकारी प्रदान करता है, बल्कि यह दिखाता है कि किस प्रकार गौर योद्धाओं ने अनेक संघर्षों और परिस्थितियों के बीच अपनी अस्मिता को बचाए रखा और अंततः रणथंबौर की धरती को अपना कर्मस्थल बनाया।
पाठक को रणथंबौर के भूगोल, उसकी प्राकृतिक संरचना और उसकी छिपी रणनीतिक शक्ति का अत्यंत रोचक वर्णन मिलता है। अरावली पर्वत की ऊँची चोटियाँ, चंबल और भामती नदियों का सानिध्य, और चारों ओर फैले घने जंगल — इन सभी का वर्णन केवल पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि कथा के चरित्र बनकर सामने आता है। यही प्रकृति युद्ध के दौरान राजपूत योद्धाओं की एक सशक्त साथी की तरह उभरती है।
लेखक व्यक्तित्व : आग-सी आवाज़, तलवार-सी कलम
समरजीत सिंह वो शख़्स हैं जिनकी आवाज़ सुनते ही सीना चौड़ा हो जाता है और कलम चलते ही ख़ून में आग लग जाती है। एक ही आदमी के अंदर कई लोग बसते हैं — कभी वो तलवार लिए आमेर की प्राचीर पर खड़ा राजपूत लगता है, कभी स्टूडियो में माइक पकड़कर “हर हर महादेव” की गर्जना करता वॉयस-ओवर आर्टिस्ट, कभी बच्चों के सामने खड़े होकर नौजवानों को इतिहास की अनसुनी बातें बताने वाला शिक्षक, और कभी रात-रात भर जागकर ऐसी पटकथाएँ लिखने वाला लेखक जो सीधे हृदय में उतर जाती हैं।
पिछले वर्ष आई उनकी पुस्तक “मान गार्ड्स – आमेर की वीर गाथा” ने जैसे राजपूती अस्मिता की बुझती ज्वाला को फिर प्रज्ज्वलित कर दिया। चाय की दुकानों से लेकर सोशल मीडिया तक — हर कोई उसकी चर्चा करता दिखा। किताब हाथों-हाथ बिकी, वीडियो वायरल हुए, और लोग एक-दूसरे से बस इतना कहते —
“ये पढ़ो, ये हमारा इतिहास है!”
और अब वही समरजीत सिंह लेकर आए हैं — “रणथंबौर की ज्वाला”।
इस बार కథ केवल तीन राजपूतों की है —
वे योद्धा जो पूरी रात लाशों के ढेर पर चढ़कर दुश्मन की सेना को रोकते रहे।
जिनके घावों से रक्त नहीं, राजपूताना अस्मिता बह रही थी।
जिन्होंने अंतिम श्वास तक बारहवें ज्योतिर्लिंग श्री घुश्मेश्वर की रक्षा की।
समरजीत की कलम पत्थर की बातों को जीवित कर देती है। पढ़ते-पढ़ते ऐसा लगता है मानो हम स्वयं उस धुंध भरी रात में रणभूमि के मध्य खड़े हैं — तलवार हाथ में है, धरती पर रक्त की नमी है और समक्ष दुश्मन का समुद्र उमड़ रहा है।
उनके शब्द कहते हैं —
“हमारा इतिहास हार का नहीं, प्रतिकार का इतिहास है।
हमारे पूर्वजों ने घुटने नहीं टेके — वे अंत तक लड़े।”
वास्तव में, यह पुस्तक नहीं — एक ज्वालामुखी है, जो हर पन्ना पलटने पर भभक उठता है।
उपन्यास का मुख्य संघर्ष तब प्रारंभ होता है जब सलार मकसूद की क्रूर सेना भारत के पवित्र स्थल श्री घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग को ध्वस्त करने रणथंबौर पहुँचती है। यह धार्मिक-आध्यात्मिक सत्ता पर सीधा आक्रमण है। इसके विरोध में खड़े योद्धा केवल युद्ध नहीं लड़ रहे — वे सनातन की रक्षा का धर्म निभा रहे हैं।
युद्ध वर्णन अत्यंत सजीव हैं — तलवारों की चमक, टकराहट की ध्वनि, शिवनाम की गर्जना — सब कुछ पाठक को उसी क्षण में पहुँचा देता है। रेवत सिंह का सिर कटने के बाद भी दैवी शक्ति से युद्धरत धड़, शिवभक्त पुजारी हरि शर्मा का त्रिशूल लिए रक्तपात — यह सब उपन्यास में आध्यात्मिक शौर्य का दिव्य आयाम जोड़ता है।
घुश्मा की पुराणिक कथा और ज्योतिर्लिंग की रक्षा की यह ऐतिहासिक यात्रा — दोनों का संयोजन उपन्यास को केवल ऐतिहासिक नहीं, बल्कि भावात्मक और दार्शनिक स्तर पर भी समृद्ध बनाता है।
अंततः, जब उपसंहार में “धर्मो रक्षति रक्षितः” का उद्घोष होता है, पाठक आत्मविश्लेषण करता है। यह उपन्यास चेतना जगाता है कि विरासत केवल देखने और सराहने की चीज़ नहीं — इसे संरक्षित करना ही हमारे अस्तित्व का प्रमाण है।
निष्कर्ष
“रणथंबौर की ज्वाला” एक असाधारण कृति है, जो इतिहास के धुँधले पृष्ठों को अग्नि जैसी चमक से प्रकाशित करती है। यह उपन्यास न केवल गौरव से भर देता है, बल्कि अपने अस्तित्त्व, संस्कृति और धर्म के प्रति कर्तव्य की स्मृति भी जगाता है। यह हर उस पाठक के लिए अनिवार्य है, जो अपनी जड़ों और अपनी मिट्टी की सच्ची सुगंध को पहचानना चाहता है।
हर हर महादेव — इस पुस्तक की हर पंक्ति इसी गर्जना की प्रतिध्वनि है।